शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

जाने तुम कहां गई ?


सीमांचल एक्सप्रेस से घर जा रहा हूं। पूरा परिवार साथ है। हम तीनों भाई, पापा, मेरी पत्नी और भाभी। फिर भी सबकुछ अधूरा है। मां जो साथ नहीं है। हम लगातार मां से दूर जा रहे हैं। हम सब मां को हरिद्वार छोड़ आए हैं। कल यानि 15 अक्टूबर को हरिद्वार के कनखल घाट पर पूरा परिवार मौजूद था। सुबह के 8 बज रहे थे.. सबका ध्यान बस मां की तरफ था। मां को नहलाया... घी की मालिश की... मां के कपड़े बदले... सेंट लगाया... भाभी और कंचन ने चूड़ियां पहनाई। सिंदूर लगाने के बाद मां तो बिल्कुल दुल्हन लग रही थी। दुल्हन के इस लिबास में वो अपने पिया के गली नहीं जा रही थी वो तो सबसे दूर जा रही थी। मां का हाथ कितना ठंडा था। पिछले करीब 20 दिनों से मां को खांसी हो रही थी। कफ से सीना घर्र.. घर्र... करता रहता था। लेकिन इस वक्त जैसे सारी बीमारी दूर हो गई थी। मां साड़ी पहनकर तैयार थी... न किसी से कोई शिकवा, न शिकायत। क्या खूब लग रही थी मेरी मां। बिल्कुल शांत, संतुष्ट... उनको विदा करने से पहले हम सब मां की तस्वीर उतार रहे थे। कलेजा फटा जा रहा था। काश ऐसा होता कि मेरी मां हमेशा मेरे पास ही होती। मेरी सुंदर मां... सबसे प्यारी मां... मैंने कई बार जगाने की कोशिश की। मां को आवाज लगाई। उनके गालों पर हाथ रखा फिर दिल से आवाज लगाई ओ मां... मां... उठो न मां। पता नहीं क्यों एक उम्मीद मेरे दिलोदिमाग पर छाई हुई थी कि मां अभी उठ बैठेगी। वो मुझसे पानी मांगेंगी। पापा के साथ गांव चलने की जिद करेगी। इसी उम्मीद से कई बार पुकारा मां... मां... मां...। मां तो ऐसे सोई थी जैसे जानबूझकर न उठने की कसम खाई हो। मां सजी हुई थी और पापा रोए जा रहे थे। उनका दिल छटपटा रहा था। वो सबसे बड़े दर्द से बिलबिला रहे थे। उनके कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहें। पापा ने मां का चेहरा चूम लिया और रो पड़े। हम तीनों भाइयों का भी यही हाल था। हम अपने हाथों से अपनी मां को विदा कर रहे थे। फिर हिम्मत बांधी। मां को अर्थी पर लिटाया। तीनों बेटों ने मां को कंधा दिया। चौथा कंधा अनुज भैया का था। मां ने जिन कंधों पर हमें दुनिया दिखाई वो कंधा आज काम नहीं कर रहा था। मां हम तीनों भाइयों के कंधे पर थी। हम उन्हें पवित्र मां गंगा के किनारे बनी चिता के पास ले गए। चिता तैयार थी। कुछ रश्मों रिवाज के बाद गुड्डू भैया ने मां को मुखाग्नि दी। मेरी सुंदर मां मेरी आंखों के सामने में जल रही थी। हम उन्हें जलते हुए देख रहे थे... और कोई चारा नहीं था। वो जलती रही लेकिन एक शब्द मुंह से नहीं निकाला। ये कैसी प्रथा थी... मां को तैयार किया था। दुल्हन की तरह सजाया था... क्या सिर्फ इसलिए कि उन्हें जला देना है। उनके राख होने का इंतजार करना है ताकि उनके राख को गंगा में प्रवाहित कर सकें। तीन घंटे के बाद मां विदा हो चुकी थी। वो अब नहीं थी। बची थी तो बस उनकी राख। राख को हमने गंगा में प्रवाहित कर दिया। एक मां जो अब तक हमारे सामने थी। दुल्हन की तरह सजी थी। आराम से सोई थी। उस मां को जलाकर गंगा में बहा दिया। श्मशान घाट पर दान दक्षिणा देने के बाद हम बढ़ गए हर की पौडी की तरफ। मां की इच्छा थी कि वो हरिद्वार आएं। यहां महीना भर रहे। जीते जी उनकी ये इच्छा पूरी न कर सके। अस्पताल से कभी फुरसत जो नहीं मिली। अस्पताल ही तो मां का घर बन गया था। खैर हर की पौड़ी में स्नान करने के बाद बड़े भारी मन से सबने अनाज के कुछ दाने हलक के नीचे उतारे। फिर 8 बजे रात को दिल्ली पहुंचे। पूरी रात गांव जाने की तैयारी में लगे रहे। सुबह पूरा परिवार गांव जाने के लिये रेलवे स्टेशन पहुंचे। यहां मां नहीं थी। हम तो उन्हें हरिद्वार छोड़ आए। एक मां के न होने से पूरा परिवार बिखड़ गया। पापा रह रहकर बच्चों की तरह बिलखने लगते हैं। हमने तो पापा के सामने सिसकना भी छोड़ दिया। पापा जब रोते हैं तो बड़ी हिम्मत जुटा कर अपने आंसुओं को थामना पड़ता है। फिर एकांत की तलाश करता हूं और गला फाड़ फाड़ कर मां से फरियाद करता हूं कि ओ मेरी मां तुम कहां चले गए। अभी तो तुम्हारे सुख के दिन लौटे ही थे कि तुमने सबको छोड़ दिया।

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